۴ آذر ۱۴۰۳ |۲۲ جمادی‌الاول ۱۴۴۶ | Nov 24, 2024
मौलाना शेख़ मोहम्मद मुसतफ़ा जौहर

हौज़ा / पेशकश: दानिशनामा इस्लाम, इंटरनेशनल नूरमाइक्रो फिल्म सेंटर दिल्ली काविश: मौलाना सैयद गाफ़िर रिज़वी छोलसी और मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फ़ंदेड़वी

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार,  मौलाना शेख़ मोहम्मद मुसतफ़ा जौहर 14 ज़ी क़ादा सन 1312 हिजरी में सरज़मीने हुसैन गंज ज़िला सीवान सूबा बिहार पर पैदा हुए, आपने इब्तेदाई तालीम भागलपुर में हासिल की, मोसूफ़ अपने वालिद की ख़्वाहिश पर इलमे दीन हासिल करने की ग़रज़ से आज़िमे लखनऊ हुए और सुलतानुल मदारिस में दाखला ले लिया और वहाँ रहकर मेहरबान और तजरुबेकार असातेज़ा से कस्बे फ़ैज़ किया, सन 1341 हिजरी में सुलतानुल मदारिस की आखरी सनद सदरुल अफ़ाज़िल हासिल की।

माहे सफ़र 1344 हिजरी में मौलाना मोहम्मद मुसतफ़ा जौहर मदरसे अब्बासया पटना के नाइबे मुदर्रिसे आला मुंतखब हुए और इसी साल 13 रजब 1344 हिजरी में मुदर्रिसे आला के ओहदे पर फाइज़ हुए।

सन 1945 ई॰ से पहले कानपुर तशरीफ़ ले गए और सन 1949 ईस्वी के शुरू तक पटकापुर की मस्जिद में इमामे जुमा व जमाअत की हैसियत से अपने फ़राइज़ की अदाएगी में मसरूफ़ रहे, आप ने खारादर कराची में 4 साल मोहर्रम की मजालिस से सुबह व शाम ख़िताब फ़रमाया जो दूसरे दिन गुजराती ज़बान में शाया करके मुफ्त तक़सीम की जाती थीं।

मोसूफ़ नमाज़े मगरेबैन के बाद तफ़सीरे कुरान, हदीस तारीख़, और दूसरे दीनी मोज़ूआत पर तक़रीर करते थे और पेचीदा दीनी मसाइल के हल पेश करते थे, इन इजतमाआत में बरादराने अहले सुन्नत के मोअज़्ज़ज़ फ़ोक़हा और औलमा भी पूरी रग़बत से शिरकत करते थे, और वक़तन फोक़तन साहिबाने नज़र भी शरीक होते रहते थे जिनमें से जोश मलिहाबादी, अल्लामा रशीद तुराबी, प्रोफैसर अली हसनैन शीफ़ता। आगा सुल्तान अहमद मिर्ज़ा देहलवी और तहज़ीबुल हसन (चीफ़ इंजीनियर) वगैरा के असमा सरे फ़ेहरिस्त हैं, मौलाना जौहर ने उन तक़रीरों का सिलसिला अपनी सख्त बीमारी के बावजूद जारी रखा था।

अल्लामा हा हाफेज़ा निहायत क़वी था किताबों का मुतालेआ उनकी ज़िंदगी थी और जो चीज़ एक बार पढ़ ली वो मरते दम तक याद रही की ये बात किस किताब के किस सफ़हे पर है।

अल्लामा को कुतुब बीनी का बहुत शौक़ था जिसको देखते हुए हुसैन गंज ज़िला सीवान के रईसे आज़म अबू युसुफ़ मोहम्मद मरहूम का किताबखाना भी आपको हासिल हो गया था, मौलाना जौहर को अंग्रेज़ी ज़बान पर काफ़ी महारत थी, एक मर्तबा उन पर ख़ारिश का इतना ज़बर्दस्त हमला हुआ की जिस्म का कोई हिस्सा महफ़ूज़ ना रहा यहाँ तक की उँगलियों से भी खून वगैरा निकलता रहता था, एक तरफ़ तो मुतालेए के बगैर वक़्त गुजारना ना मुमकिन था दूसरी तरफ़ दीनी किताबें हाथ में लेते हुए डरते की कहीं औराक़ नजिस ना हो जाएँ, लिहाज़ा इसका हल ये निकाला की अलिफ़ लैला का अंग्रेज़ी तरजमा मंगवाया और उसे पढ़ना शुरू किया , और इधर मर्ज़ ख़त्म हुआ और उधर किताब ख़त्म हुई और मौलाना अंग्रेज़ी के माहिर हो गए।

 मौसूफ़ ने बहुत सादा ज़िंदगी बसर की, मामूली साफ़ सुथरा लिबास पहनते सादा और क़लील मिक़दार में गिज़ा सर्फ करते, आप दुनिया से बे नियाज़ थे मोसूफ़ ने पूरी ज़िंदगी मजालिस पढ़ने की उजरत किसी से नहीं मांगी। कभी किसी के सामने दस्ते सवाल दिराज़ ना किया।

मोसूफ़ मुक़र्रिर होने के साथ अच्छे शायर भी थे और जौहर तखल्लुस करते थे, शायरी में आपका उसतादाना दर्जा पटना और दूसरे अदबी मराकिज़ में मुसल्लम था, पटना में क़याम के दौरान बहुत से लोग आपकी शागिर्दी के फैज़ से मुसतनद शायर बन गये आपके क़साइद, सलाम और रुबाइया अगर ज़ेवरे तबाअत से आरास्ता हो जाएँ तो मदहे अहलेबैत अ: का एक क़ीमती ज़ख़ीरा क़ौम के हाथों में आ जाए।

अल्लाह ने आपको एक बेटी और 2 बेटे अता किए जिनको अबुल क़ासिम जौहरी और मशहूर खतीब अल्लामा तालिब जोहरी के नाम से पहचाना जाता है के नाम से पहचाना जाता है।

मौसूफ़ ने अपनी तमाम मसरूफ़ियात के बावजूद तसनीफ़ो तालीफ़ में भी नुमाया किरदार अदा किया जिनमें से: सुबूते खुदा, तोहीद व अदल नहजुल बलागा के रोशनी में, अक़ाइदे जाफ़रया, उसूले जाफ़री,जनाबे सय्यदा का तारीख़ी खुतबा ए फ़िदक जो आग़ा सुलतान अहमद मिर्ज़ा की किताब सीरते फातेमा ज़हरा (स) में शामिल है और अल गदीर की पहली जिल्द का उर्दू तर्जुमे के नाम लिये जा सकते हैं।

आख़िरकार ये इल्मव हुनर का आफ़ताब 9 सफ़र 1406 हिजरी बरोज़ पंजशंबा सरज़मीने कराची पर गुरूब हो गया, आपके चाहने वालों पर गम के बादल छा गए, नमाज़े जनाज़ा के बाद सखी हसन के क़ब्रिस्तान में सुपुर्दे ख़ाक कार दिया गया।

माखूज़ अज़: नुजूमुल हिदाया, तहक़ीक़ो तालीफ़ : मौलाना सैयद ग़ाफ़िर रिज़वी फ़लक छौलसी व मौलाना सैयद रज़ी ज़ैदी फंदेड़वी जिल्द-9 पेज-126 दानिशनामा ए इस्लाम इंटरनेशनल नूर माइक्रो फ़िल्म सेंटर, दिल्ली, 2023ईस्वी।

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